Friday, February 19, 2010
लाजवाब
खुबसूरत खलिश के पन्नो से
जायजा -ए -ज़ुल्म-ए-सनम आज लिया जाए गा,
यूं सिला उन की ज़फायों का दिया जाये गा
जिस के हर शेर पे,हर लफ्ज़ पे ,तड़पे वोह ए संग
आज उस नज़्म का आगाज़ किया जाये गा
दर्द मांगा हम ने अल्लाह से , कुछ इस अंदाज़ में
दोनों हाथों से मेरे दामन को उस ने भर दिया
सुखनगर हो गए हैं वोह,यह संग को अच्छा लगता है ,
मगर यह शेर इक दिल की सदा क्यूँ कर नहीं लगते ,,
हज़ार बस्तियां मैंने बसा के रख दी हैं
तमाम उम्र खुदाया मैं घर बना ना सका
इक परिंदे के चले जाने से उड़ कर ए संग ,
रंग हर-इक शय का मिरे शहर में धुंधला क्यूँ है
किस्मत पे अपनी नाज़ सा होने लगा है संग ,
जिस दिन से दिलजलों के शहंशाह हुए हैं हम
तुझ से गिला करैं या मुक्कद्दर पे रोयें हम
तेरे करीब आके भी तन्हा रहे हैं हम
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