Sunday, February 19, 2012

मैं किश्ती में ही बैठा रह गया, घर जा न सका

कौल जो तुझसे किया था उसे निभा न सका
बड़ा सुबुक था ये बोझा, मगर उठा न सका

हज़ार बस्तियाँ मैंने बसा के रख दी हैं
तमाम उम्र खुदाया मैं घर बना न सका

करता दीवारों ओ दरीचों का तसव्वुर कैसे
एक बुनियाद का पत्थर भी मैं जुटा न सका

एक घर है जिसे लोग मेरा कहते हैं
राह उसकी मुझे लेकिन कोई बता न सका

घर भी इक ज़हन में उठती हुई ग़ज़ल था जिसे
गुनगुनाता तो रहा पर कभी भी गा न सका

मिरे घर और मेरे बीच एक सूखी नदी थी
मैं किश्ती में ही बैठा रह गया, घर जा न सका